दस दिन बाप्पा घर में रहे। मोदक खाए गए, आरतियाँ हुईं, ढोल-ताशे बजे, और अब आँसुओं के साथ वे विदा हो रहे हैं। अनंत चतुर्दशी के दिन पुणे मानो किसी अलग ही ताल पर चलता है। सुबह से ही सड़कों पर भीड़, विसर्जन की शोभायात्राएँ निकलती हैं, गुलाल आसमान में उड़ता है। ढोल-ताशों की गूंज दिल की धड़कन बन जाती है।
पहली बार विसर्जन की शोभायात्रा में कदम रखो तो हाथों का गुलाल आँखों के आँसुओं में घुल जाएगा। “गणपती गेले गावाला, चैन पडेना आम्हाला (गणपति चले गए, और चैन भी साथ ले गए)” — यह गूंज कानों में गूँजेगी। उस पल से हर साल यह दिन विरह का भी होगा, और नई शुरुआत का भी।
शोभायात्रा में अफरातफरी तो है, पर अनुशासन भी। कहीं कतार में खड़े हो जाओ तो नज़र आएगा —गुलाल उछालता बच्चा, पीछे ढोल बजाता युवक, बगल में आरती करती औरतेँ —सब बिखरा हुआ, पर एक साथ। यही है पुणेरी शोभायात्रा।
और नारा? “गणपति बाप्पा मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ!” यह वाक्य पंचांग की गणनाओं को उलट देता है। सच में, एक साल बाप्पा दस दिन पहले आते हैं, फिर और दस दिन पहले, मगर तीसरे साल पंचांग लड़खड़ाता है और वे बीस दिन देर से आते हैं। लेकिन भक्ति को गणित कब रोक पाया है? भक्ति के आगे पंचांग भी घुटने टेकता है।
शुक्रवार पेठ में रहते हुए मेरे पाँवों को आदत लग गई थी—सारसबाग के पुल पर से गुजरने की। हरी-भरी बगिया, चहचहाते पक्षी, और पानी के बीचोबीच खड़ा मंदिर। उस छोटे से पुल को पार करते हुए पेट में एक अलग-सा रोमांच होता।
मंदिर की परिक्रमा करते समय दीवारों पर खुदा “गणपति अथर्वशीर्ष” पढ़ता था। छोटी-छोटी पंक्तियाँ, पर आँखों में अंकित—“ऋतम् वच्मि, सत्यम् वच्मि।” उचित बोलूँगा, सत्य बोलूँगा। तब यह केवल रटा-रटाया श्लोक लगता था, बड़े होकर समझा कि यही तो पुणेरी जीवन का सार है।
पर्वती चढ़ने मैं हमेशा बुआ के साथ जाता। साँस चढ़ने लगे तो हम सीढ़ियाँ गिनते, बातें करते। लेकिन कार्तिकेय के मंदिर की सीढ़ियों पर अपने आप ही कदम रुक जाते—“हमारे घर की औरतें वहाँ नहीं जातीं” — यह बात पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही थी। मैंने हमेशा बस सीढ़ियों से झाँका, भीतर कभी कदम नहीं रखा। कार्तिकेय जीवन भर दूर ही रहे। लोककथा कहती है—माँ पार्वती से रूठे पुत्र के कारण यह मंदिर स्त्रियों के लिए वर्जित है। बचपन में ही मन में सवाल उठा —क्या देवता भी घर के झगड़े भूलते नहीं?
पुणे में गणेश केवल मंदिरों में नहीं, बल्कि शहर की रोजमर्रा की धड़कन में घुला है। कसबा गणपति की गली में कदम रखते ही हवा बदल जाती है। पकोड़ों के तेल की महक नाक में घुसती है, आरती की ध्वनि कानों में गूँजती है, और भीड़ में धक्कामुक्की होते हुए भी भक्ति की गर्म चादर तन पर चढ़ जाती है। “ग्रामदेवता” की उपाधि केवल पत्थर को नहीं, इस गली की हर सांझेदारी को बाँधती है।
और थोड़ा आगे तांबड़ी जोगेश्वरी—शहर की सच्ची माँ। भीतर शांति, बाहर हलचल। शरीर पर सिंदूर, आँखों में विश्वास। पुणे का शोरगुल भुलाना हो तो दो मिनट वहीं ठहरो।
दगडूशेठ हलवाई के गणपति पर सोने की चमक है, पर साथ ही व्यापारी के दुख से जन्मी आस्था है। भीड़ में खड़े होकर लगता है—सच्चा सोना आभूषण का नहीं, श्रद्धा का है।
भाऊ रंगारी की शोभायात्रा में सार्वजनिक गणेशोत्सव का पहला मोदक बँटा। रंग, आवाज़, गंध सब मिलकर वहीं पैदा हुआ पुणे का लोकतंत्र।
पुणे अठारह पेठों का जाल है—अठारह बाज़ार, अठारह मठ, अठारह पीपल। इसी चौखट में हर किसी का अपना देवालय है। कसबा और सारसबाग केंद्र में जैसे, वैसे ही गलियों में मारुति के मंदिर उभरते हैं— भिकारदास मारुति का तेज, पंचमुखी मारुति की भव्यता, दक्षिणमुखी मारुति का कठोर दर्शन। पारे भी केवल पेड़ नहीं; नागनाथ पार, शनि पार पर जमती बातें, ताश के पत्तों की बाज़ी, भक्ति की कहानियाँ—ये भी पुणे के धार्मिक भूगोल के पन्ने हैं। यानी पुणे में मंदिर सिर्फ़ एक जगह नहीं, समाज की बुनियाद हैं। और मंत्र एक ही—शुरुआत हमेशा गणेश से।
वास्तव में पुणे केवल मंदिरों से नहीं बना; उसकी गलियों में अनुशासन और बगावत दोनों की गंध घुली है।
फरासखाना सुनते ही बुज़ुर्ग कहते हैं—नाक में अब भी घोड़ों की गंध आती है। दारूवाला पुल सुनकर आज लोग शराब समझते हैं, पर दरअसल ये बारूद का भंडार है। फड़गेट यानी राजस्व वसूली की जगह। आज गहमागहमी वाला चौक नज़र आता है, पर नाम सुनते ही हिसाब की पुरानी किताबें आँखों के सामने खड़े हो जाते हैं। स्वारगेट — नाम ही बताता है, घुड़सवारों का प्रवेशद्वार। अब बस डिपो है, पर मूल अर्थ भुलाना नहीं चाहिए।
मामलेदार कचहरी में आज धूल खाती फाइलें दिखती हैं, पर इसी जगह 1832 में उमाजी नाईक को पीपल के पेड़ पर फाँसी दी गई। अंग्रेजों ने तीन दिन तक उनका शव वहीं लटकाये रखा। कर न भरने का आवाहन करने वाला, सरकारी तिजोरी लूटने वाला, किसानों की आवाज़ बनने वाला यह बागी—सिर्फ नाम सुनते ही आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
यह चिंगारी चाफेकर भाईयों ने फिर भड़काई। 1897 में प्लेग के दौरान उन्होंने कमिश्नर रैंड को गोली से उड़ा दिया। पूरे शहर में दहशत फैली, पर सीने में गर्व की आग भी जली। तिलक ने गणेशोत्सव को सार्वजनिक किया, तब आरती की ध्वनि और बगावत की गूंज एक ही सड़क पर मिली। पुणे गणेश की राजधानी है ही, पर यह बागियों का भी शहर है।
इसलिए पुणे का नागरी इतिहास पढ़ते समय याद रखना चाहिए—यहाँ केवल मंदिर, बाज़ार, गलियाँ नहीं हैं; यहाँ छुपी हैं घोड़ों की टाप, बारूद की गंध, राजस्व की मुहरें, और फाँसी के पेड़ पर लटकता आत्मसम्मान।
पुणे की भूख साधारण नहीं। सुबह आरती की घंटानाद के बाद तुरंत दूसरी आरती शुरू होती है—मिसळ पाव की।
तिलक रोड की टपरी पर पहला निवाला लेते ही आँखों में पानी आना तय है। रस्सा तीखा, ऊपर से फरसाण, और हाथ में डबलरोटी —यही पुणेरी जीवन का सूत्र है: आग और मिठास, तकलीफ और दिलासा—दोनों साथ।
स्कूल छूटते ही वडा पाव का टाइम। “वडा पाव मुंबई का” ऐसा कहते है, पर यहाँ की सड़कों पर खाया वडा अलग ही स्वाद देता है। छात्र, नौकरीपेशा, या दर्शक—सबकी भूख इस एक निवाले से मिटती है।
पावभाजी यानी बची-खुची सब्ज़ियों का मेल। कुछ भी लेलो, मक्खन डालो, और भूख मिटाने वाली लोकतांत्रिक थाली तैयार। देर रात नाटक खत्म होने पर, पढ़ाई के बाद, या सिर्फ गपशप के बहाने —सबका यही सहारा।
"झुणका-भाकर (बेसन की सब्ज़ी और ज्वार की रोटी)"? सीधी-सादी, पर शरीर में ताकत देने वाली। उस थाली में मजदूरों की मेहनत और पसीने का स्वाद शामिल है।
इन सब में असली पुणेरी मज़ा है भेल खाने में। गुडलुक चौक पर भेल की पुड़िया हाथ में लेकर खड़े हो जाओ तो बातें अपने आप रंग लाती हैं। आलू, प्याज, चटनी, सेव—सब एक कागज़ में लिपटा हुआ। यह भेल सिर्फ़ खाने की चीज़ नहीं, बल्कि हर पुणेरी बहस का बहाना है। “हमारे ज़माने में यही भेल सिर्फ XX रुपये में मिलती थी”—यह बात कोई ना कोई कह ही देता है।
इन सबका साझा सूत्र है ‘पाव’। पुर्तगालियों ने लाया और पुणेरी गलियों ने अपनाया। बारह–सोलह पावों की एक लादी से टूटा छोटा-सा टुकड़ा—विद्यार्थी हो या दुकानदार, बाबू हो या कलाकार—सबको अपना बराबर का हिस्सा मिलता है।
यानी पुणे का भोजन उसकी संस्कृति जैसा ही है: साधारण, किफायती, और सबको एक साथ बैठाने वाला। गणपति आम आदमी का देवता, और यह पाव उसका प्रसाद।
पुणे से बाहर निकला तो समझ में आया —भगवान भी पासपोर्ट लेकर चलते हैं। कार्तिकेय का दर्शन मुझे जीवन भर वर्जित रहा। पर जब मलेशिया में पेनांग हिल पहुँचा तो वहाँ मुख्य मंदिर कार्तिकेय का था। वहाँ यह मुरुगन—छह युद्धस्थलों का वीर, दो पत्नियों का यजमान, लाखों भक्तों का प्रिय। ऊँचाई पर लाल रंग के गर्भगृह में खड़ा मुरुगन। पर दरवाज़े पर छोटा गणेश। मुख्य सभा गृह में भी एक कोना उसका। और पिछवाड़े संपूर्ण शिव-परिवार—माँ, पिता और दोनों भाई। चारों के अपने अपने अनुयायी। दक्षिण-पूर्व एशिया में देखकर लगा—मेरा पुणे से नाता यहाँ तक आ गया।
जो दक्षिण-पूर्व एशिया में मिला, वही अमेरिका की लाइब्रेरी में। फिलाडेल्फिया में किताब मिली—Ganesa: Lord of Obstacles, Lord of Beginnings. अंत में दिया गया अथर्वशीर्ष पढ़ा: “ऋतम् वच्मि, सत्यम् वच्मि” — उचित बोलूँगा, सत्य बोलूँगा। यह पंक्ति दिमाग में ठहर गई। सारसबाग की दीवार पर पढ़ा, यहाँ समुद्र पार किताब में फिर मिला। भक्ति की डोर भाषा और भूमि से परे ले जाने वाली होती है।
मुंबई पहुँचा तो दृश्य अलग। वहाँ सार्वजनिक उत्सव का विस्फोट—हर जगह पंडाल, दिन-रात भीड़। पुणे में गणेशोत्सव जो घर-घर, पुराने वाडों में, और बाद में सोसायटियों में उतरा; मुंबई में वही सड़कों पर फूला। लेकिन नारा वही—“गणपति बाप्पा मोरया।”
मुझे हमेशा लगता है—दुनिया के किसी भी शहर में चला जाऊँ, हवाई अड्डे पर, छोटे मंदिर में, या विदेश में अपने घर के कोने में, जब बाप्पा दिखें तो तुरंत पुणे की याद आँखों में भर आती है। जैसे गुलाल के बादलों में ढोल-ताशों की गूंज सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। बाप्पा हर प्रवासी पुणेकर के स्थायी साथी हैं।
बाप्पा हमेशा सीधा सबक देते हैं—मोदक में मिठास और अंकुश में अनुशासन। वे मुस्कुराते हैं, पर हाथ में परशु है। संदेश साफ़ है: आनंद लो, पर मर्यादा में।
अष्टविनायक यात्रा के बाद यह शिक्षा और स्पष्ट होती है। मोरेश्वर कहते हैं—आरंभ करो; सिद्धिविनायक दिखाते हैं—सफलता मिलेगी; विघ्नेश्वर कहते हैं—बाधाओं से मत डरो; महागणपति याद दिलाते हैं—समृद्धि संयम से टिकती है। हर मंदिर अलग पाठशाला, पर शिक्षक एक ही—गणेश।
चिंचवड के मोरया गोसावी तो गणेश को परमात्मा ही मानते हैं। यानी वह केवल विघ्नहर्ता नहीं, पूर्णत्व की ओर ले जाने वाला मार्ग हैं। यही कारण है कि “सुखकर्ता, दुखहर्ता वार्ता विघ्नांची” आरती के स्वर सहज ही हर पुणेरी जीवन की प्रार्थना बन जाते हैं।
लेकिन अनंत चतुर्दशी आते ही विरह का बोझ बढ़ता है। वही दृश्य हर साल आँखों में आता है।
क्षण भर लगता है, बाप्पा चले गए, घर सूना हो गया। पुणे वाडों से सोसायटियों तक, बागों से आईटी पार्कों तक बदल गया, पर इस गूंज में बदलाव नहीं—
“अगले बरस तू जल्दी आ!”
और इसलिए हर साल लगता है—यह विदाई नहीं, यह नई शुरुआत है। क्योंकि हमें पता है—बाप्पा फिर लौटेंगे। और तब वही गूंज हमारी गलियों, हमारे घरों, हमारे दिलों में फिर उठेगी—
“गणपति बाप्पा मोरया।”